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प्राकृतिक खेती (Natural Farming)

Posted 26 Dec 2024

Updated 31 Dec 2024

43 min read

सुर्ख़ियों में क्यों? 

हाल ही में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक स्वतंत्र केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन (National Mission on Natural Farming: NMNF) के शुभारंभ को मंजूरी दी। इस मिशन का क्रियान्वयन केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के तहत होगा। 

अन्य संबंधित तथ्य

  • केंद्र सरकार ने जीरो बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) का नाम बदलकर भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP) कर दिया था। साथ ही, 2019 में इसे परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) नामक अम्ब्रेला योजना के तहत एक उप-योजना के रूप में शामिल किया गया था।
  • PKVY को 2015 में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य पर्यावरण अनुकूल और कम लागत वाली प्रौद्योगिकियों को अपनाकर रसायनों और कीटनाशकों से मुक्त कृषि उत्पादन सुनिश्चित करना है।
  • वित्त वर्ष 2023-24 से भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP) का नाम बदलकर राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन (NMNF) कर दिया गया, ताकि इसे पूरे देश में लागू किया जा सके।
    • यह एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इसे 6 वर्ष (2019-25) की अवधि के लिए शुरू किया गया है। 
    • इसका लक्ष्य देश भर के 600 प्रमुख ब्लॉक्स में 12 लाख हेक्टेयर भूमि को कवर करना है। साथ ही, क्लस्टर निर्माण और क्षमता निर्माण के लिए 3 वर्षों के लिए 12,200 रुपये प्रति हेक्टेयर की वित्तीय सहायता प्रदान करना भी इसका लक्ष्य है।

'राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन' के बारे में

  • कार्यान्वयन: अगले दो वर्षों में, NMNF को इच्छुक ग्राम पंचायतों के 15,000 क्लस्टर्स में लागू किया जाएगा तथा इसे 1 करोड़ किसानों तक पहुंचाया जाएगा। साथ ही, इसके तहत 7.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती शुरू की जाएगी। 
  • मिशन के अन्य घटक:
    • बायो-इनपुट रिसोर्स सेंटर (BRCs): इनके माध्यम से किसानों के लिए उपयोग हेतु तैयार बायो-इनपुट की आसान उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी।
    • मॉडल प्रदर्शन फार्म्स: किसानों को प्रशिक्षण देने के लिए मॉडल प्रदर्शन फार्म स्थापित किए जाएंगे।
    • कृषि सखी: इसके तहत इच्छुक किसानों के बीच जागरूकता का प्रसार करने, उन्हें संगठित करने और उनके मार्गदर्शन का कार्य किया जाएगा। 

प्राकृतिक खेती के बारे में 

  • यह रसायन मुक्त, कम इनपुट वाली व जलवायु अनुकूल कृषि प्रणाली है। यह सिंथेटिक कृषि रसायनों के उपयोग को समाप्त करते हुए पशुधन और स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों पर आधारित होती है। 
  • प्राकृतिक खेती शुरू करने वाले राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, केरल, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड आदि।

जैविक (आर्गेनिक) बनाम प्राकृतिक कृषि प्रणालियां

  • समानताएं: दोनों ही रसायन-मुक्त कृषि प्रणालियां हैं, अर्थात् ये मुख्य रूप से बायोमास प्रबंधन, प्राकृतिक पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण, फसल चक्र और बहुफसलीय खेती पर निर्भर हैं।
  • मुख्य अंतर:

पैरामीटर

जैविक कृषि

प्राकृतिक कृषि

इनपुट

इसमें खेत से बाहर से खरीदे गए ऑर्गेनिक और जैविक इनपुट शामिल होते हैं। 

इसमें किसी तरह के बाहरी इनपुट का उपयोग नहीं किया जाता है। इसमें देसी गाय से प्राप्त खेत पर ही उपलब्ध इनपुट का उपयोग किया जाता है।

मृदा में सुधार

इसमें खनन किए गए प्राकृतिक खनिजों के माध्यम से आवश्यकता के आधार पर मृदा में सुधार किया जाता है। 

इसमें कम्पोस्ट/ वर्मी कम्पोस्ट एवं खनिजों के उपयोग की अनुमति नहीं है। 

कृषि प्रक्रियाएं

इसमें जुताई, खाद मिलाने और निराई-गुड़ाई आदि कार्य करने की आवश्यकता होती है। 

इसमें मृदा की सतह पर सूक्ष्मजीवों और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को प्रोत्साहित किया जाता है। 

लागत

इसमें जैविक खाद की आवश्यकता के कारण लागत अधिक आती है।

इसमें स्थानीय जैविक संसाधनों पर निर्भरता के कारण कम लागत आती है। 

 

 

प्राकृतिक खेती का महत्त्व

  • उपज में वृद्धि: श्रम, मृदा, उपकरण जैसे अनुकूल कारकों के अधिकतम उपयोग और रासायनिक उर्वरकों, खरपतवार नाशकों एवं कीटनाशकों जैसे गैर-प्राकृतिक इनपुट्स के उपयोग को समाप्त करके पैदावार में बढ़ोत्तरी हो सकती है।
  • आय में वृद्धि: जीवामृत और बीजामृत जैसे स्थानीय संसाधनों को प्रोत्साहित करने से किसानों की महंगे उर्वरकों और रसायनों पर निर्भरता कम होती है। इससे किसानों की आय में वृद्धि होती है और खेती संधारणीय तथा लाभदायक बनी रहती है। 
  • स्वास्थ्य के लिए बेहतर: प्राकृतिक खेती में सिंथेटिक रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता है, इसलिए यह उच्च पोषक तत्व और बेहतर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हुए स्वास्थ्य जोखिम और खतरों को समाप्त करता है। 
  • रोजगार सृजन: प्राकृतिक फसलों के उत्पादन से लेकर वितरण एवं बाजार तक पहुंचाने हेतु कृषि मूल्य श्रृंखला में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे।
  • पर्यावरण संरक्षण: प्राकृतिक खेती से मृदा में सुधार, जैव-विविधता में वृद्धि; बहुत कम कार्बन और नाइट्रोजन का उत्सर्जन तथा जल का अधिक विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित होता है।
  • मृदा स्वास्थ्य में सुधार: प्राकृतिक खेती जैव-इनोकुलम और प्राकृतिक कीटनाशकों का उपयोग करके मृदा के माइक्रोबायोटा को पुनर्जीवित एवं मृदा के स्वास्थ्य में सुधार करती है। इसके परिणामस्वरूप पौधों में पोषक तत्व की मात्रा में वृद्धि होती है और मनुष्यों के लिए जैव-उपलब्धता भी बेहतर होती है।
    • जैव-उपलब्धता यानी बायो-अवैलबलिटी वास्तव में शरीर द्वारा तत्वों को अवशोषित करने की क्षमता है।  

प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई अन्य पहलें

  • राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंधन संस्थान (National Centre for Management of Agricultural Extension: MANAGE): यह प्राकृतिक खेती पर सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों को दर्ज करने और सफलता की कहानियों के डिजिटलीकरण के लिए एक नॉलेज पार्टनर है।
  • राष्ट्रीय जैविक एवं प्राकृतिक खेती केंद्र (National Centre for Organic and Natural Farming: NCONF): इसका उद्देश्य रसायन मुक्त कृषि प्रणालियों को बढ़ावा देना और प्राकृतिक खेती के लिए प्रमाणन कार्यक्रम का विकास करना है।
  • राज्यों द्वारा शुरू की गई पहलें: 
    • प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान (PK3) योजना, हिमाचल प्रदेश: यह प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने तथा खेती की लागत को कम करने और किसानों की आय बढ़ाने का प्रयास करती है।
    • गुजरात आत्मनिर्भर पैकेज: इसके तहत बजट 2020-21 में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेष वित्तीय सहायता की घोषणा की गई। 

 

प्राकृतिक खेती से जुड़ी चिंताएं

  • उपज संबंधी अनिश्चितता: पारंपरिक खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती से अक्सर कम पैदावार प्राप्त होती है और शुरुआती चरण में अधिक निवेश की आवश्यकता होती है। इससे किसानों की आय कम होने की आशंका बनी रहती है। 
  • इनपुट की आपूर्ति से जुड़ी चिंताएं: जैव-उर्वरकों के निर्माण के लिए गाय के गोबर और गोमूत्र की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है।
  • ज्ञान और कौशल की कमी: जीवामृत और बीजामृत जैसे जैव-इनपुट तैयार करने और उनका खेती में प्रयोग करने के लिए कुशल और जानकार लोगों की जरूरत पड़ती है। इनकी कमी की वजह से कृषि विस्तार (एग्रीकल्चर एक्सटेंशन) सेवाओं में कमी आती है। इस तरह अधिक प्रशिक्षण और अधिक श्रम की आवश्यकता के कारण प्राकृतिक खेती को व्यापक रूप से अपनाने में बाधा आती है। 
  • बाजार संबंधी चुनौतियां: प्राकृतिक कृषि के उत्पादों के लिए अक्सर विशेष आपूर्ति श्रृंखला, उपभोक्ता जागरूकता, उचित विपणन सहायता एवं प्रमाणन-तंत्र आदि का अभाव देखने को मिलता है। इससे किसानों के लिए उचित और लाभकारी मूल्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।
  • नीतिगत कमियां: प्राकृतिक इनपुट्स के गुणवत्ता संबंधी विनियमों और मानकों पर स्पष्ट दिशा-निर्देशों का अभाव है। साथ ही, प्राकृतिक कृषि पद्धतियों के लिए सरकारी सहायता सीमित होने के कारण इस क्षेत्र में नवाचार करने एवं अपनाने की प्रगति धीमी हो जाती है। 
  • जलवायु परिवर्तन और कीट हमले: प्राकृतिक खेती पर जलवायु परिवर्तन जनित मौसम की चरम स्थितियों एवं कीटों के हमले का खतरा बना रहता है। इससे फसल खराब होने का खतरा बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए- राजस्थान में टिड्डियों के हमले। 

आगे की राह

  • किसान उत्पादक संगठन (FPOs): FPOs उपज को एकत्रित करके, इनकी खरीद बढ़ाकर, मजबूत आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करके तथा उपभोक्ताओं के बीच विश्वास का निर्माण करके प्राकृतिक खेती को अपनाने को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • किसानों का प्रशिक्षण: किसानों को देसी गाय के गोबर-गोमूत्र से बने उत्पाद, बायो-इनपुट और वनस्पति अर्क जैसे इनपुट तैयार करने हेतु व्यापक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • जागरूकता पैदा करना: प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन, कीट नियंत्रण और फसल-चक्र जैसी गतिविधियों के बारे में किसानों में जागरूकता बढ़ानी चाहिए एवं उन्हें गहन प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। साथ ही, जमीनी भागीदारों का समर्थन हासिल करना भी जरूरी है। 
  • मार्केटिंग संबंधी सहायता: प्राकृतिक खेती की उपज की बिक्री बढ़ाने के लिए शहरी केंद्रों में विशेष खुदरा दुकानों की स्थापना की जा सकती है। साथ ही, प्राकृतिक खेती के उत्पादों को प्रमाणित करने के लिए स्व-मूल्यांकन प्रमाणन प्रणाली शुरू की जानी चाहिए।
  • सर्वोत्तम पद्धतियों को अपनाना: उदाहरण के लिए- आंध्र प्रदेश समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक खेती कार्यक्रम (Andhra Pradesh Community Managed Natural Farming: APCNF) प्राकृतिक खेती से जुड़ी हुई कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने का प्रयास करता है। इस कार्यक्रम के तहत 60 लाख किसानों की मदद की गई है।
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