भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण (DIGITIZATION OF LAND RECORDS) | Current Affairs | Vision IAS
मेनू
होम

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के लिए प्रासंगिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास पर समय-समय पर तैयार किए गए लेख और अपडेट।

त्वरित लिंक

High-quality MCQs and Mains Answer Writing to sharpen skills and reinforce learning every day.

महत्वपूर्ण यूपीएससी विषयों पर डीप डाइव, मास्टर क्लासेस आदि जैसी पहलों के तहत व्याख्यात्मक और विषयगत अवधारणा-निर्माण वीडियो देखें।

करंट अफेयर्स कार्यक्रम

यूपीएससी की तैयारी के लिए हमारे सभी प्रमुख, आधार और उन्नत पाठ्यक्रमों का एक व्यापक अवलोकन।

ESC

भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण (DIGITIZATION OF LAND RECORDS)

26 Dec 2024
38 min

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अधिसूचित किया कि 2016 से ग्रामीण भारत में लगभग 95% भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण किया जा चुका है।

अन्य संबंधित तथ्य

  • यह उपलब्धि डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP) के कारण प्राप्त की जा सकी है।
  • इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय स्तर पर कैडस्ट्रल (भू-संपत्ति) मानचित्रों का डिजिटलीकरण 68.02% के स्तर तक पहुंच गया है।
  • साथ ही, 87% उप-पंजीयक कार्यालयों ( SROsको भूमि अभिलेखों के साथ एकीकृत किया गया है।

डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP) के बारे में

  • कार्यक्रम की शुरुआत: 2016 में राष्ट्रीय भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम को नया रूप देकर इस कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी।
  • संबंधित मंत्रालय: यह ग्रामीण विकास मंत्रालय के भूमि संसाधन विभाग के तहत केंद्रीय क्षेत्रक की एक योजना है।
    • इस योजना की कार्यावधि 2021-22 से बढ़ाकर 2025-26 तक कर दी गई है। इसमें दो नए घटक शामिल किए गए हैं। 
      • देश के सभी राजस्व न्यायालयों का कम्प्यूटरीकरण करना और भूमि अभिलेखों के साथ उनका एकीकरण करना।
      • सहमति के आधार पर आधार संख्या को अधिकार अभिलेखों (RoRs) से जोड़ना।  
  • उद्देश्य: मैनुअल रूप से आनुमानित (Presumptive) भू-स्वामित्व प्रणाली को डिजिटल रूप से निर्णायक भू-स्वामित्व प्रणाली से बदलना।

भूमि अभिलेखों के डिजिटलीकरण की आवश्यकता क्यों है?

  • सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता: भूमि की प्राप्ति और उसका अभिलेखित स्वामित्व अधिकांश कमजोर वर्गों (गरीबों, सीमांत किसानों, जनजातियों आदि) की आजीविका के लिए महत्वपूर्ण है। 
  • भूमि स्वामित्व विवाद: निर्णायक स्वामित्व की कमी, जालसाजी के माध्यम से अवैध तरीके से भूमि अधिग्रहण और बेनामी संपत्ति आदि, भू-स्वामित्व संबंधी विवादों में वृद्धि का कारण बने हैं।
    • भारत में 60% से अधिक मुकदमे भूमि से संबंधित हैं।
    • निर्णायक भू-स्वामित्व प्रणाली में, भूमि अभिलेख वास्तविक स्वामित्व का निर्धारण करते हैं। स्वामित्व सरकार द्वारा प्रदान किया जाता है।
  • अकुशल प्रशासनिक प्रक्रियाएं: भूमि अभिलेखों को अपडेट करने और सुधारने की प्रणाली बहुत जटिल, विस्तृत और धीमीहै। इसमें भ्रष्टाचार, भूमि को हड़पना आदि शामिल हो सकता है।
  • अप्रचलित मानचित्रण: अपडेटेड अभिलेखों की कमी के कारण मौजूदा अभिलेख, कब्जे और स्वामित्व से संबंधित वर्तमान जमीनी हकीकत के अनुरूप नहीं हैं।
  • लक्षित सार्वजनिक सेवा वितरण: प्रभावी भू-स्वामित्व की कमी के कारण भू-स्वामित्व से जुड़ी ग्रामीण विकास योजनाओं में अपात्रता या योग्य भूमि-धारकों के बाहर होने संबंधी त्रुटियां सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को हासिल करने में बाधा डालती हैं।
    • उदाहरण के लिए- पीएम-किसान योजना के माध्यम से सरकार सभी भूमिधारक किसानों के परिवारों को आय सहायता प्रदान करती है।
  • राजस्व प्रशासन को मजबूत करना: संपत्ति कर और भूमि-आधारित कर स्थानीय निकायों के लिए राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है।
  • बुनियादी अवसंरचना का विकास: भूमि विवाद और अस्पष्ट स्वामित्व के कारण अवसंरचना विकास में बाधाएं आती हैं, लागत बढ़ती है और दक्षता कम होती है। इसके परिणामस्वरूप भूमि लेन-देन में काला बाजारी फलती-फूलती है।

भूमि के डिजिटलीकरण में मौजूद चुनौतियां

  • अनुमानित भू-स्वामित्व (Presumptive land titling): संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 के आधार पर भूमि के हस्तांतरण के लिए भूमि के स्वामित्व की बजाय बिक्री विलेखों (sales deeds) के पंजीकरण की आवश्यकता होती है।
    • इस प्रकार, संपत्ति का वास्तविक लेन-देन भी हमेशा स्वामित्व की गारंटी नहीं देता, क्योंकि इस तरह के लेन-देन को चुनौती दी जा सकती है।
  • केंद्र-राज्य समन्वय: भूमि राज्य सूची का विषय है। इस प्रकार, भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण राज्य सरकारों की इच्छा और केंद्र-राज्य सहयोग पर निर्भर करता है।
    • भूमि संबंधी कानूनों, नीतियों और प्रणालियों के संदर्भ में राज्यों के बीच समन्वय एवं मानकीकरण की कमी भी डिजिटलीकरण में बाधा डालती है।
  • विभागों का अलग-अलग दृष्टिकोण: भू-स्वामित्व अलग-अलग विभागों द्वारा बनाए गए कई दस्तावेजों के माध्यम से निर्धारित किया जाता है। इससे कारण भू-स्वामित्व संबंधी रिकॉर्डों तक पहुंच बोझिल हो जाती है।
    • उदाहरण के लिए- बिक्री विलेख पंजीकरण विभाग में संग्रहित किए जाते हैं, नक्शे सर्वेक्षण विभाग में संग्रहित किए जाते हैं, और संपत्ति कर रसीदें राजस्व विभाग के पास होती हैं।
  • पंजीकरण से संबंधित कानूनी प्रावधान: सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण, एक साल से कम समय के लिए दी जाने वाली संपत्ति का पट्टा, और 1908 के पंजीकरण अधिनियम के तहत होने वाला उत्तराधिकार विभाजन, इन सभी के लिए पंजीकरण करवाना जरूरी नहीं है। इससे मुकदमेबाजी में वृद्धि हुई है।
  • पंजीकरण की उच्च लागत: उच्च स्टाम्प ड्यूटी और पंजीकरण शुल्क संपत्ति लेन-देन के औपचारिक पंजीकरण को हतोत्साहित करते हैं। इससे भूमि रिकॉर्ड की जमीनी हकीकत के मामले में विसंगतियां उत्पन्न होती हैं।
  • अन्य: विरासत डेटा से जुड़ी समस्याएं, परिवर्तन के लिए हितधारकों का प्रतिरोध, कुछ क्षेत्रों में अवसंरचना की कमी, प्रक्रियात्मक जटिलताएं, तकनीकी बाधाएं आदि।

आगे की राह

  • निर्णायक भू-स्वामित्व (Conclusive land titling): निर्णायक भू-स्वामित्व और स्वामित्व की राज्य द्वारा गारंटी प्रणाली की ओर बढ़ना चाहिए। यह भूमि रिकॉर्ड की पारदर्शिता और सटीकता में सुधार करने में सहायता करेगा।
    • नीति आयोग द्वारा तैयार मॉडल निर्णायक भू-स्वामित्व अधिनियम (2020) इस संबंध में राज्यों को भू-स्वामित्व के संबंध में उचित कानून बनाने में सहायता कर सकता है।
  • कानूनी सुधार: संपत्ति के पंजीकरण से संबंधित कानूनों में बदलाव लाने चाहिए, जैसे- संपत्ति के स्वामित्व का पंजीकरण, मौजूदा अभिलेखों को समय पर अपडेट करना आदि।
  • तकनीकी एकीकरण: कैडस्ट्रल (भू-संपत्ति) मानचित्रों, नेशनल जेनेरिक डॉक्यूमेंट रजिस्ट्रेशन सिस्टम (NGDRS) आदि के भू-संदर्भ के लिए GIS प्रौद्योगिकी की दक्षता में सुधार करना चाहिए। 
  • प्रशिक्षण और जागरूकता सृजन: योजना के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए कर्मियों का प्रशिक्षण और लोगों की डिजिटल साक्षरता एवं जागरूकता में वृद्धि करना आवश्यक है।

भारत में भूमि सुधार

अलग-अलग पंचवर्षीय योजनाओं के साथ-साथ जे.सी. कुमारप्पा समिति (1949) द्वारा भी भूमि सुधारों पर जोर दिया गया था।

भूमि सुधारों में मुख्य रूप से पांच घटक शामिल हैं:

  • मध्यस्थ काश्तकारों (जमींदारी) का उन्मूलन: 1950 से 1970 के दशक के दौरान अलग-अलग राज्यों में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लागू किए गए थे। इसने बड़े जमींदारों-काश्तकारों के बीच संबंधों को समाप्त कर दिया था।
    • इन सुधारों के तहत, 'जमीन जोतने वाले की' के विचार के आधार पर भूमि का पुनर्वितरण किया गया था।
  • काश्तकारी सुधार: जमींदारों द्वारा काश्तकारों को अवैध रूप से व जबरन बेदखल करने से रोकने और उचित लगान दरों को सुनिश्चित करने के लिए काश्तकारी सुधार कानून बनाए गए थे। हालांकि, कई कानूनी खामियों की मौजूदगी के कारण, काश्तकारों का शोषण जारी रहा।
    • उदाहरण के लिए- "स्थायी काश्तकारी" प्रणाली, एक ऐसी प्रणाली थी जिसमें एक किसान लंबे समय तक भूमि पर खेती कर सकता था, लेकिन उस भूमि का मालिक नहीं बन सकता था।
  • भूमि जोत की सीमा तय करना और अधिशेष भूमि का पुनर्वितरण: 1970 के दशक में लागू किए गए लैंड सीलिंग अधिनियमों का उद्देश्य किसी व्यक्ति या परिवार की भूमि जोत की सीमा तय करना और अधिशेष भूमि को भूमिहीनों में पुनर्वितरित करना था। इसको लागू करने का उद्देश्य अधिक कुशल कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना था। 
    • हालांकि कानूनी खामियों, अभिजात भू-स्वामी वर्ग के प्रतिरोध, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण इसे सीमित सफलता मिली।
  • जोतों का समेकन: इसका उद्देश्य मशीनीकरण और अधिक कुशल कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने के लिए छोटे-छोटे खेतों को मिलाकर उन्हें बड़े खेत में तब्दील करना था।
    • हालांकि, अपनी जमीन छोड़ने के लिए अनिच्छुक लघु किसानों के विरोध के कारण इस पहल को सीमित सफलता मिली।
  • भूमि अभिलेखों का संकलन और उन्हें अपडेट करना।

Explore Related Content

Discover more articles, videos, and terms related to this topic

Title is required. Maximum 500 characters.

Search Notes

Filter Notes

Loading your notes...
Searching your notes...
Loading more notes...
You've reached the end of your notes

No notes yet

Create your first note to get started.

No notes found

Try adjusting your search criteria or clear the search.

Saving...
Saved

Please select a subject.

Referenced Articles

linked

No references added yet

Subscribe for Premium Features