सुर्ख़ियों में क्यों?
एक नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, तमिलनाडु में लौह युग का आरंभ 3,345 ईसा पूर्व में हुआ था।
अन्य संबंधित तथ्य
- यह रिपोर्ट 'एंटीक्वेटी ऑफ़ आयरन: रीसेंट रेडियोमेट्रिक डेट्स फ्रॉम तमिलनाडू' शीर्षक से जारी की गई है। रिपोर्ट में इस बात का खंडन किया गया है कि लौह प्रौद्योगिकी का प्रचलन पहली बार हित्ती साम्राज्य (1300 ईसा पूर्व, अनातोलिया, तुर्की) में हुआ था।
- इस रिपोर्ट को तमिलनाडु राज्य पुरातत्व विभाग, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India: ASI) और विश्वविद्यालयों ने तैयार किया है।
- इस नवीनतम तथ्य का पता आदिचनल्लूर, सिवगलाई, मयिलाडुम्पराई, किलनामंडी, मंगाडु और थेलुंगनूर में की गई खुदाई से चला है।
भारत में लौह युग: नवीन खोजें
- पृष्ठभूमि
- इससे पहले, भारत में लौह युग की शुरुआत पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में मानी जाती थी। हालांकि, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हुई नवीनतम खोजों के बाद यह बात सामने आयी कि भारत में लौह युग की शुरुआत दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में हुई थी।

- अब तमिलनाडु से मिले नवीनतम साक्ष्यों ने भारत में लौह युग की शुरुआत को तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य तक विस्तारित कर दिया है।
- अध्ययन में उपयोग की जाने वाली डेटिंग तकनीकें: इसमें एक्सेलेरेटर मास स्पेक्ट्रोमेट्री रेडियोकार्बन (AMS 14C) और ऑप्टिकली स्टिम्युलेटेड ल्यूमिनसेंस (OLS) डेटिंग का उपयोग किया गया है।
- नवीनतम तथ्य:
- तमिलनाडु से प्राप्त लौह युग के नवीनतम साक्ष्य वैश्विक स्तर पर ज्ञात अब तक के सबसे प्राचीन लौह युगीन साक्ष्य हैं।
- सिवगलाई: इस जगह से प्राप्त लोहे से संबंधित प्रमाण 3345–2953 ईसा पूर्व के हैं। यहां एक समाधि कलश भी मिला है जो संभवतः 1155 ईसा पूर्व का है।
- मयिलाडुम्पराई: इस जगह से 2172 ईसा पूर्व के लोहे के उपकरणों के साक्ष्य मिले हैं।
- किलनामंडी: तमिलनाडु में ताबूत के साथ शवाधान की प्रक्रिया के सबसे प्राचीन साक्ष्य 1692 ईसा पूर्व के हैं। यह तमिलनाडु से प्राप्त शवाधान के अपनी तरह के सबसे आरम्भिक प्रमाण हैं।
- उन्नत धातुकर्म मानवीय संज्ञानात्मक और तकनीकी विकास को दर्शाता है: भारत में प्रारंभिक धातुकर्म की उन्नत अवस्था का प्रमाण कोडुमनाल, चेट्टीपलयम और पेरुंगलूर जैसे स्थलों पर पाए गए तीन अलग-अलग प्रकार के लौह-पिघलाने वाली भट्टियों से मिलता है।
- इन भट्टियों का तापमान 1300°C तक था। यह स्पंज आयरन के उत्पादन के लिए आवश्यक उन्नत पायरो-तकनीकी समझ को प्रदर्शित करता है।
- ताम्र और लौह युग का समकालीन होना: जब विंध्य पर्वत के उत्तर स्थित सांस्कृतिक क्षेत्रों में ताम्र युग चल रहा था, तब विंध्य पर्वत के दक्षिण का क्षेत्र लौह युग में प्रवेश कर चुका था।
- तमिलनाडु से प्राप्त लौह युग के नवीनतम साक्ष्य वैश्विक स्तर पर ज्ञात अब तक के सबसे प्राचीन लौह युगीन साक्ष्य हैं।
भारत में लौह युग:

- भारत में लौह युग की शुरुआत हड़प्पा सभ्यता (कांस्य युगीन) के बाद मानी जाती है।
भारत के विभिन्न भागों में लौह युग के प्रमुख साक्ष्य
उत्तर भारत में लौह युग | उत्तरी भारत में लौह युग के पुरातात्विक साक्ष्यों में चित्रित धूसर मृदभांड (Painted Grey Ware: PGW) और उत्तरी काले चमकदार मृदभांड (Northern Black Polished Ware: NBPW) प्रमुख हैं।
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दक्षिण भारत में लौह युग | प्रायद्वीपीय भारत में लौह युग के आरंभिक साक्ष्य मुख्य रूप से महापाषाण संरचनाओं से संबंधित हैं। इसके अलावा, कुछ साक्ष्य आवास स्थलों के नजदीक भी मिले हैं।
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अन्य क्षेत्रों में लौह युग |
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लौह युग का प्रभाव
- तकनीकी एवं आर्थिक प्रभाव
- धातु कर्म में प्रगति: कृषि, युद्ध कला और शिल्प कौशल में सुधार हुआ।
- शहरीकरण: गंगा घाटी में नगरों के विकास के साथ भारत का द्वितीय शहरीकरण (800-500 ईसा पूर्व) शुरू हुआ।
- कृषि: कुदाल और हल के फाल जैसे लोहे के औजारों ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाया, जिससे सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं में बदलाव आया।
- राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव:
- महाजनपदों का उदय: खाद्य उत्पादन में हुई बढ़ोतरी ने विशाल राज्यों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।
- कला एवं वास्तुकला: दिल्ली का लौह स्तंभ (चौथी सदी ईसा पूर्व) उन्नत जंग-रोधी धातु विज्ञान का उदाहरण है।
- युद्ध कला का विकास: लोहे के हथियारों, कवच और रथों के निर्माण ने सैन्य रणनीतियों में महत्वपूर्ण बदलाव लाया।
निष्कर्ष
गॉर्डन चाइल्ड ने प्राचीन मानव इतिहास को पुरापाषाण, मध्य पाषाण, नवपाषाण, ताम्रपाषाण और लौह युग (Iron Age) में विभाजित किया है। इतिहासकारों ने इस काल क्रम को व्यापक रूप से निश्चित माना है। हालांकि, मानव विकास एक सरल रेखीय प्रक्रिया नहीं है बल्कि प्रौद्योगिकी में प्रगति क्षेत्र, संसाधनों और पर्यावरण के अनुसार यह प्रत्येक क्षेत्र में अलग हो सकती है। हम जानते हैं कि इतिहास को समझना एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें अलग-अलग समय-सीमाएं और चरण एक-दूसरे से ओवरलैप होते हैं। इसके चलते वर्गीकरण की अवधारणा चुनौतीपूर्ण हो जाती है। अब समय आ गया है कि इस रेखीय वर्गीकरण पर पुनर्विचार किया जाए।