सुर्ख़ियों में क्यों?
संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी 'अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी' का हवाला देते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), पेरिस समझौता और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (International Criminal Court: ICC) जैसी प्रमुख वैश्विक संस्थाओं/ व्यवस्थाओं से अलग होने का फैसला किया है।
अन्य संबंधित तथ्य
- इससे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका 2017 में भी पेरिस समझौते से बाहर हो गया था, लेकिन 2021 में फिर से इसमें शामिल हो गया। इसी तरह इसने 2020 में WHO की सदस्यता त्यागने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। हालांकि, बाद में 2021 में वह इस संगठन में फिर से शामिल हो गया।
- अमेरिका की ओर से टैरिफ वॉर (प्रशुल्क युद्ध) भी जारी है। नए अमेरिकी प्रशासन ने देश का व्यापार घाटा कम करने के लिए व्यापार अधिशेष वाले देशों के आयात पर उच्च टैरिफ लगाने की धमकी दी है।
- 2023 में, अमेरिका का व्यापार घाटा 1.05 ट्रिलियन डॉलर का था। इसमें 4 देश/ संगठन (चीन, मैक्सिको, कनाडा और यूरोपीय संघ) लगभग 80% अमेरिकी व्यापार घाटे के लिए जिम्मेदार थे।
- संरक्षणवादी उपायों को अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से अपनाया जा रहा है। इस तरह ये उपाय आर्थिक राष्ट्रवाद के विचार को बढ़ावा देते हैं।

संरक्षणवाद (Protectionism) के बारे में
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संयुक्त राज्य अमेरिका के नए कदम के संभावित प्रभाव
बहुपक्षवाद/ बहुपक्षीय संस्थाओं पर प्रभाव
- वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कमजोर हो सकती है: अमेरिका का 'अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रति संप्रभुतावादी विचार (Sovereigntist view of international law)' बहुपक्षीय संस्थाओं के मानदंड संबंधी प्राधिकार (Normative authority) को तेजी से कमजोर कर सकता है।
- 'अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रति संप्रभुतावादी विचार' यह मानता है कि बहुपक्षीय संधियां किसी देश की संप्रभुता को सीमित करती हैं।
- वैश्विक अनुसंधान के लिए खतरा: संयुक्त राज्य अमेरिका ने WHO महामारी समझौता और अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमों में संशोधन पर वार्ता रोक दी है।
- इससे रोगों और टीका-विकास पर कई महत्वपूर्ण वैश्विक अनुसंधान कार्यक्रमों की सफलता खतरे में पड़ जाएगी। साथ ही 'रोगों पर वैश्विक सूचना डेटाबेस' से अमेरिका बाहर हो जाएगा। इससे महामारियों या अन्य रोगों के प्रकोप से निपटने में समस्या उत्पन्न होगी।
- वित्तपोषण: संयुक्त राज्य अमेरिका कई वैश्विक संस्थाओं के वित्तपोषण में सबसे ज्यादा अंशदान देता है। अमेरिकी फंड रुकने से विकास और आपातकालीन कार्य प्रभावित होंगे।
- उदाहरण के लिए- अमेरिका शुरू से ही WHO में सबसे अधिक अंशदान करता रहा है। 2022-2023 में WHO के कुल राजस्व का 15.6% अमेरिकी अंशदान से आया था।
- पर्यावरण पर प्रभाव: "यू.एस. इंटरनेशनल क्लाइमेट फाइनेंस प्लान" को समाप्त कर दिया गया है। इसकी स्थापना विकासशील देशों को उनकी जलवायु चुनौतियों से निपटने में मदद करने के लिए बहुपक्षीय और द्विपक्षीय संस्थानों के माध्यम से धन जुटाने के लिए की गई थी।
- यह निर्णय 'साझा परंतु विभेदित उत्तरदायित्व (Common but Differentiated Responsibilities: CBDR) के सिद्धांत के खिलाफ है।
- वैश्विक व्यापार और आपूर्ति श्रृंखला: टैरिफ में वृद्धि और आयात को सीमित करने वाली "अमेरिका फर्स्ट व्यापार नीति" वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर सकती है। इससे व्यापार में अनिश्चितता बढ़ेगी, निवेशकों का विश्वास कम होगा और WTO के नियमों की अवहेलना को बढ़ावा मिलेगा।
- ग्लोबल साउथ: पर्याप्त संसाधनों के अभाव के कारण ग्लोबल साउथ के कई देश निष्पक्ष व्यवस्था और न्याय प्राप्ति के लिए बहुपक्षीय संस्थाओं पर निर्भर हैं। जाहिर है इन देशों में विकास प्रभावित होगा।
- तंजानिया में USAID (United States Agency for International Development/ संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी) द्वारा वित्तपोषित जलवायु-अनुकूल कृषि परियोजनाएं, फंड में कटौती के कारण प्रभावित हुईं हैं। इससे वहां कृषि क्षेत्र की उत्पादकता पर असर पड़ा है।
भारत-संयुक्त राज्य अमेरिका सहयोग पर प्रभाव
सकारात्मक प्रभाव
- व्यापार में बढ़ोतरी: संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच व्यापार तनाव की वजह से विश्व के निवेशक भारत में अपनी विनिर्माण गतिविधियां स्थापित कर सकते हैं। इन गतिविधियों में सूचना-प्रौद्योगिकी (IT) सेवाएँ, इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल्स, आदि शामिल हैं।
- हाल ही में, अमेरिकी वाणिज्य विभाग के उद्योग एवं सुरक्षा ब्यूरो ने अपनी एंटिटी लिस्ट से 3 भारतीय संगठनों को हटा दिया है।
- एंटिटी लिस्ट में शामिल कंपनियों पर कई तरह के निर्यात प्रतिबंध होते हैं और कुछ वस्तुओं के व्यापार के लिए उन्हें लाइसेंस लेना पड़ता है।
- हाल ही में, अमेरिकी वाणिज्य विभाग के उद्योग एवं सुरक्षा ब्यूरो ने अपनी एंटिटी लिस्ट से 3 भारतीय संगठनों को हटा दिया है।
- हिंद-प्रशांत: अपनी "एशिया की धुरी (Pivot to Asia)" रणनीति के आधार पर, संयुक्त राज्य अमेरिका ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा दिया है। इसका उद्देश्य चीन के बढ़ते भू-राजनीतिक प्रभाव को प्रतिसंतुलित करना है।
- उदाहरण के लिए- क्वाड (QUAD), भारत मध्य-पूर्व आर्थिक गलियारा (India Middle East Economic Corridor: IMEC), इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (IPEF) जैसी पहलें शुरू की गई हैं।
- प्रौद्योगिकी: भारत-संयुक्त राज्य अमेरिका "इनिशिएटिव फॉर क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (iCET)" और असैन्य परमाणु ऊर्जा साझेदारी जैसी पहलों के माध्यम से ज्ञान साझा करने और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ावा मिलेगा।

नकारात्मक प्रभाव
- व्यापार प्रतिस्पर्धा का बढ़ना: भारतीय निर्यातकों को अन्य देशों के बाजारों में कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका में उच्च टैरिफ की वजह से चीन की सस्ती वस्तुएं अन्य देशों के बाजार में प्रवेश कर रही हैं।
- उदाहरण के लिए, भारत से वस्त्र-परिधान निर्यातकों को दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन की सस्ती वस्तुओं के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है।
- भारत से आयात पर उच्च शुल्क: संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत की व्यापार नीतियों की आलोचना की है, तथा अमेरिकी वस्तुओं के आयात पर उच्च टैरिफ लगाने (जैसे- हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर टैरिफ) का मुद्दा उठाया है। अमेरिका भारत से इस्पात, ऑटोमोबाइल जैसे आयातों पर उच्च टैरिफ लगा सकता है।
- संयुक्त अमेरिका का भारत के साथ लगभग 45.7 बिलियन डॉलर का व्यापार घाटा है।
- आव्रजन नीतियां (Immigration Policies): H1-B वीजा को सीमित करना, जन्मसिद्ध नागरिकता पर प्रतिबंध जैसी सख्त आव्रजन नीतियां संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय तकनीकी कर्मचारियों और प्रवासियों के आगमन को प्रभावित कर सकती हैं।
- गौरतलब है कि अमेरिका में प्रतिवर्ष 70% H1-B वीजा भारतीयों को प्राप्त होती है।
- अमेरिका में घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहन: 'बाय अमेरिकन' नीति की वजह से अमेरिकी बाजार में अवसर कम हो जाएगा। इससे भारत से निर्यात प्रभावित होगा। जाहिर है इससे मेक इन इंडिया पहल, उत्पादन-से-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना आदि पर भी असर पड़ सकता है।
निष्कर्ष
बदलते वैश्विक आर्थिक परिदृश्य को देखते हुए ट्रेड वॉर, वित्तीय मामलों को फिर से व्यवस्थित करने और नये समूहों की जटिलताओं से निपटने में भारत की क्षमता परखी जाएगी। भारत की नीति द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को मजबूत करने, अधिक निर्यात बाजारों के अवसर खोजने और बहुपक्षीय संस्थाओं में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करने की होनी चाहिए। भारत की भू-आर्थिक (Geoeconomic) सफलता तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में सहयोग और रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने के बीच संतुलन बनाने की उसकी क्षमता पर निर्भर करेगी।