सिंधु जल संधि (INDUS WATER TREATY: IWT) | Current Affairs | Vision IAS
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सिंधु जल संधि (INDUS WATER TREATY: IWT)

Posted 05 Mar 2025

Updated 18 Mar 2025

32 min read

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, विश्व बैंक द्वारा नियुक्त तटस्थ विशेषज्ञ ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। यह फैसला भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि (IWT) के तहत जम्मू और कश्मीर में निर्माणाधीन दो जलविद्युत परियोजनाओं के डिजाइन को लेकर चल रहे विवाद से संबंधित है। तटस्थ विशेषज्ञ ने यह स्पष्ट किया है कि वह इन परियोजनाओं के डिजाइन पर भारत और पाकिस्तान के बीच मौजूद मतभेदों का समाधान करने में पूरी तरह से "सक्षम" है। यह निर्णय भारत के उस रुख को मजबूत करता है, जिसमें भारत ने हमेशा से तटस्थ विशेषज्ञ के अधिकारों का समर्थन किया है।

अन्य संबंधित तथ्य 

  • विवाद की शुरुआत 2015 में पाकिस्तान द्वारा की गई, जिसके बाद विश्व बैंक ने दोहरी विवाद समाधान प्रक्रिया अपनाई। इसके तहत भारत के अनुरोध पर "तटस्थ विशेषज्ञ (Neutral Expert)" नियुक्त किया गया। जबकि पाकिस्तान के अनुरोध पर "स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (Permanent Court of Arbitration)" को भी मामले में शामिल किया गया।
  • इन विवादित जलविद्युत परियोजनाओं में शामिल हैं- 
    • झेलम नदी पर 330 मेगावाट की किशनगंगा जलविद्युत परियोजना (2018 में उद्घाटन); तथा 
    • चिनाब नदी पर 850 मेगावाट की रतले परियोजना (निर्माणाधीन)।
      • भले ही ये रन-ऑफ-रिवर परियोजनाएं हैं, फिर भी, पाकिस्तान का दावा है कि इनसे उसकी कृषि भूमि को मिलने वाले जल प्रवाह पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

सिंधु जल संधि (IWT) के बारे में

  • उत्पत्ति: इस संधि पर 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच हस्ताक्षर किए गए थे।
  • जल उपयोग अधिकार:
    • पूर्वी नदियां (रावी, ब्यास और सतलुज) – इन नदियों का पूरा पानी भारत के लिए आरक्षित है। भारत इनका बिना किसी रोक-टोक के उपयोग कर सकता है।
    • पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम और चिनाब) – इन नदियों का पानी पाकिस्तान को आवंटित किया गया है। हालांकि, भारत को विशिष्ट गैर-उपयोग उद्देश्य से कुछ सीमित गतिविधियों की अनुमति प्राप्त है, जैसे- नौवहन, लकड़ी आदि का परिवहन, बाढ़ सुरक्षा या बाढ़ नियंत्रण, मछली पकड़ने या मछली पालन से संबंधित गतिविधियां, इत्यादि।
      • इसके अलावा, भारत के पास निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए इन नदियों के जल का उपयोग करने की भी अनुमति है:
        • घरेलू उपयोग;
        • गैर-उपभोग्य उपयोग (Non-consumptive use);
        • कृषि उपयोग;
        • जल-विद्युत का उत्पादन।
      • इस संधि से सिंधु नदी प्रणाली का लगभग 30% जल भारत को और 70% जल पाकिस्तान को मिलता है।
  • IWT का कार्यान्वयन: संधि के कार्यान्वयन से संबंधित सभी मामलों पर नियमित संवाद करने के लिए दोनों देशों द्वारा स्थायी सिंधु जल आयुक्त नियुक्त किए गए है।
  • विवाद समाधान तंत्र (त्रिस्तरीय श्रेणीबद्ध तंत्र): 
    • स्थायी सिंधु आयोग (Permanent Indus Commission: PIC): यदि संधि की व्याख्या या इसके उल्लंघन से संबंधित कोई संदेह या विवाद हो, तो इसे हल करने की पहली जिम्मेदारी PIC की होती है।
    • तटस्थ विशेषज्ञ: यदि PIC में किसी तकनीकी विवाद पर सहमति नहीं बन पाती है तब मामला तटस्थ विशेषज्ञ के पास भेजा जाता है।
      • तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति विश्व बैंक या भारत सरकार और पाकिस्तान सरकार द्वारा मिलकर की जाती है।
    • मध्यस्थता न्यायालय: यदि विवाद का समाधान नीचे के स्तरों पर नहीं होता, तब 7 सदस्यीय मध्यस्थता न्यायालय मामले पर अंतिम कानूनी निर्णय देता है।

IWT से जुड़ी प्रमुख चुनौतियां

  • पाकिस्तान द्वारा भारतीय परियोजनाओं का विरोध: पाकिस्तान अक्सर किशनगंगा (झेलम नदी) और रतले (चिनाब नदी) जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध करता है। पाकिस्तान का तर्क है कि ये परियोजनाएँ संधि में तय तकनीकी मानकों का पालन नहीं करती हैं
  • पर्यावरणीय चिंताएं: जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से सिंधु नदी प्रणाली के जल प्रवाह में बदलाव आ सकता है। 
  • भारत की बढ़ती जरूरतें: जनसंख्या वृद्धि और कृषि विस्तार के कारण भारत को सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए अधिक पानी की जरूरत है। इस कारण से भारत अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए जल अधिकारों की पुनः समीक्षा करने की मांग करता है
  • सुरक्षा और राजनीतिक दबाव: 
    • रणनीतिक उपयोग: मौजूदा दौर में जल को एक रणनीतिक संपत्ति के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए भारत का यह कहना है कि "खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते"। इस बात से संकेत मिलता है कि भविष्य में जल को भू-राजनीतिक हथियार के रूप में देखा जा सकता है।
    • आतंकवाद संबंधी चिंताएं: भारत ने सीमा-पार आतंकवाद और सिंधु जल संधि को जोड़कर देखा है। खासकर 2016 के उरी हमले के बाद भारत ने संकेत दिया कि पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने से संधि पर पुनर्विचार किया जा सकता है।

आगे की राह 

  • एकीकृत जल प्रबंधन और जलवायु अनुकूलन: दोनों देश एकीकृत नदी बेसिन प्रबंधन दृष्टिकोण अपना सकते हैं। साथ ही, संधारणीय जल उपयोग, संरक्षण और बाढ़ प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए सिंधु नदी प्रणाली पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का संयुक्त अध्ययन शुरू कर सकते हैं।
  • आधुनिकीकरण और पुनर्वार्ता: नई तकनीकों और बदलते जल उपयोग की मांगों को ध्यान में रखते हुए संधि में सुधार किया जा सकता है।
    • इसमें अंतर्राष्ट्रीय जल कानून के सिद्धांतों जैसे कि न्यायसंगत और उचित उपयोग (Equitable and Reasonable Utilization: ERU) और नो-हार्म रूल (NHR) को शामिल किया जा सकता है।
      • नो-हार्म रूल: यह अंतर्राष्ट्रीय कानून का एक व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त सिद्धांत है। इसके तहत प्रत्येक देश को यह सुनिश्चित करना होता है कि उसके कार्यों से किसी अन्य देश को पर्यावरणीय क्षति न हो।
  • पारदर्शिता और डेटा साझाकरण: रियल-टाइम सैटेलाइट आधारित निगरानी और संयुक्त डेटा साझाकरण तंत्र से जल प्रवाह, बांध संचालन और बाढ़ प्रबंधन से जुड़ी जानकारी साझा की जा सकती है। इससे दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी को दूर किया जा सकता है

सीमा-पार जल बंटवारे पर अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत

हेलसिंकी नियम, 1966

  • यह राष्ट्रीय सीमाओं को पार करने वाली नदियों और उनसे जुड़े भूजल के उपयोग को नियंत्रित करता है।
  • इसमें विवादों को वार्ता, मध्यस्थता, न्यायाधिकरण या अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के माध्यम से हल करने के सिद्धांत शामिल हैं। 

हेलसिंकी कन्वेंशन, 1992 

  • यह सीमा-पार जल प्रदूषण को रोकने और नियंत्रित करने के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करता है।
  • इसके तहत, सभी सदस्य देशों को प्रिकॉशनरी यानी सावधानी सिद्धांत (Precautionary Principle) लागू करने की आवश्यकता होती है।

यू.एन. कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ नॉन-नेविगेशनल यूज ऑफ इंटरनेशनल वाटरकोर्स, 1997 

  • इसे यू.एन. वाटरकोर्स कन्वेंशन के रूप में भी जाना जाता है। यह एक लचीला और व्यापक वैश्विक कानूनी ढांचा है, जो सीमा-पार जल स्रोतों के उपयोग, प्रबंधन और संरक्षण के लिए बुनियादी मानक और नियम तय करता है।
  • इसने दो प्रमुख सिद्धांत स्थापित किए है: 
    • "न्यायसंगत और उचित उपयोग" और 
    • "पड़ोसियों को अत्यधिक नुकसान न पहुंचाने का दायित्व"।

 

 

 

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