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आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें {GENETICALLY MODIFIED (GM) CROPS}

05 Mar 2025
49 min

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने खतरनाक सूक्ष्म जीवों/ आनुवंशिक रूप से इंजीनियर्ड जीवों या कोशिकाओं के विनिर्माण, उपयोग, आयात, निर्यात और भंडारण (संशोधन) नियम, 2024 का मसौदा जारी किया।

अन्य संबंधित तथ्य 

  • यह मसौदा पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अंतर्गत जारी खतरनाक सूक्ष्म जीवों/आनुवंशिक रूप से इंजीनियर्ड जीवों या कोशिकाओं के विनिर्माण, उपयोग, आयात, निर्यात और भंडारण नियम, 1989 में संशोधन का प्रस्ताव करता है।
  • इन संशोधनों का उद्देश्य आनुवंशिक रूप से संशोधित सजीवों से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जीन कैम्पेन एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य वाद में इसके लिए निर्देश दिया है। 
  • प्रस्तावित मसौदे में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (Genetic Engineering Appraisal Committee: GEAC) की निर्णय प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए नियमों में बदलाव की सिफारिश की गई है। 

आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) फसलें: 

  • जिन पादपों, बैक्टीरिया, कवक और प्राणी के जीन में अपेक्षित परिवर्तन किया गया है, उन्हें आनुवंशिक रूप से संशोधित सजीव (GMOs) कहते हैं।
  • इसी तरह, GM फसलें उन फसलों को कहा जाता है जिन्हें दूसरे सजीवों के विशिष्ट जीन का उपयोग करके आनुवंशिक इंजीनियरिंग तकनीकों द्वारा विकसित किया जाता है।

GM फसलें कैसे विकसित की जाती हैं?

  • GM फसलों का विकास किसी निर्धारित सजीव से इच्छित जीन की पहचान कर और उसे अलग करने से शुरू होता है। फिर इस जीन को प्रयोगशाला आधारित विधियों का उपयोग करके पादप के DNA में डाला जाता है।
    • जीन गन दृष्टिकोण: इस विधि में, DNA-कोटेड धातु के कणों को पौधे की कोशिकाओं में तेजी से डाला जाता है। इससे DNA सीधे पौधे की कोशिका में प्रवेश कर जाता है।
    • एग्रोबैक्टीरियम विधि: इसमें एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमेफैसिएन्स जीवाणु का उपयोग किया जाता है, जो वांछित जीन को पौधों की कोशिकाओं में स्थानांतरित करता है।
    • इलेक्ट्रोपोरेशन: इसका उपयोग तब किया जाता है जब पौधे के ऊतकों में कोशिका भित्ति नहीं होती है। इस तकनीक में इलेक्ट्रिक पल्सेस का उपयोग करके पौधे की कोशिका में छोटे छिद्र बनाए जाते हैं और DNA इन छिद्रों के जरिए कोशिका में प्रवेश करता है।
    • माइक्रोइंजेक्शन: इसका उपयोग कोशिकाओं में सीधे अन्य किसी सजीव के DNA को इंजेक्ट करने के लिए किया जाता है।

भारत में GM फसलें 

  • बीटी कॉटन: यह 2002 से भारत में वाणिज्यिक खेती के लिए स्वीकृत एकमात्र GM फसल है। यह कपास बॉलवर्म के लिए प्रतिरोधी होती है। 
    • इसमें मृदा में पाए जाने वाले जीवाणु बी. थुरिंजिनिसिस के जीन को शामिल किया गया है। इस BT कॉटन के पौधे की कोशिकाएं क्रिस्टल कीटनाशक प्रोटीन का उत्पादन करती हैं, जिन्हें क्रायोप्रोटीन कहा जाता है। 
  • बीटी बैंगन: इसे 2009 में GEAC द्वारा अनुमोदित किया गया था, लेकिन बाद में इसे स्थगित कर दिया गया।
    • बीटी बैंगन में एक 'cry1Ac' जीन होता है, जिसे मिट्टी के जीवाणु बैसिलस थुरिंजिनिसिस से लिया गया है। यह जीन एक विषैले प्रोटीन के निर्माण में मदद करता है जो इसे कीटों के लिए प्रतिरोधी बनाता है।
    • आठ राज्यों में दो नई ट्रांसजेनिक किस्मों (जनक और BSS-793) के लिए जैव सुरक्षा अनुसंधान संबंधी फील्ड ट्रायल की अनुमति दे दी गयी है। 
  • GM सरसो (DMH-11): 
    • यह सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्लांट्स (दिल्ली विश्वविद्यालय) द्वारा विकसित किया गया है। 
  • GM सरसो को अभी तक वाणिज्यिक खेती के लिए मंजूरी नहीं मिली है।
  • यह सरसों की दो किस्मों ('वरुणा' और ईस्ट यूरोपीय 'अर्ली हीरा-2') के बीच क्रॉस पोलिनेशन से उत्पन्न हुआ है।
    • सामान्य सरसो में क्रॉस पोलिनेशन मुश्किल होता है, क्योंकि सरसो स्वपरागण या सेल्फ-पोलिनेशन करने वाली फसल है। अर्थात नर भाग से पराग उसी पौधे के मादा भाग को परागित और निषेचित करता है।
    • यह क्रॉस पोलिनेशन मृदा में पाए जाने वाले जीवाणु बैसिलस एमाइलोलिकेफैसिएंस से बार्नेज़ और बारस्टार जीन को दोनों सरसों किस्मों में डालकर किया गया है।
      • वरुण में बार्नेज़ जीन अस्थायी रूप से स्टेरिलिटी उत्पन्न करता है, जिसके कारण यह प्राकृतिक रूप से स्वपरागण नहीं कर सकता। हीरा में बारस्टार जीन बार्नेज़ के प्रभाव को समाप्त करता है, जिससे बीज उत्पन्न हो पाते हैं। 

बार्नेज़-बारस्टार (Barnase-Barstar) प्रणाली:

  • DMH 11 में तीन ट्रांसजींस– बार्नेसे, बारस्टार और बार का उपयोग किया गया है। 
  • इन तीन ट्रांसजींस का उद्देश्य:  
    • बार्नेज (Barnase): इसका उपयोग टेपीटम कोशिका परत को नष्ट करके मेल-स्टेराइल पादप विकसित करने के लिए किया जाता है। 
      • जब ट्रांसजेनिक पादपों का यह पेरेंटल लाइन (वंशक्रम) तैयार होता है, तो इसे फिमेल पेरेंट के रूप में उपयोग किया जाता है और दूसरे पेरेंट (जिसमें बारस्टार जीन होता है) से इसे निषेचित किया जाता है। इससे हाइब्रिड तैयार होता है। 
        • टेपीटम कोशिकाएं पुष्पीय पादप के परागकोश में कोशिकाओं की एक परत होती है जो विकसित हो रहे पराग कणों को पोषक तत्व प्रदान करती है।
    • बारस्टार (Barstar): यह बार्नेज़ प्रोटीन के प्रभाव को पूरी तरह से हटा देता है। इसके परिणामस्वरूप, दो ट्रांसजेनिक लाइन्स के बीच संकर बीज पूरी तरह से फर्टाइल हो जाता है और किसान इस संकर किस्म से उच्च उपज का लाभ उठा सकते हैं। 
    • बार (Bar): बार जीन बास्टा नामक शाकनाशी (हर्बीसाइड) के लिए प्रतिरोध प्रदान करता है तथा ट्रांसफॉर्म्ड लाइन्स (रूपांतरित वंशक्रमों) के चयन के लिए आवश्यक होता है।
      • बार जीन को मूलतः मृदा में पाए जाने वाले जीवाणु स्ट्रेप्टोमाइसेस हाइग्रोस्कोपिकस से लिया गया है। 

भारत में GMOs का विनियमन

  • विनियमन और अनुमोदन: 
    • जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC): यह समिति GMOs के बड़े पैमाने पर उपयोग के लिए और पर्यावरणीय मंजूरी देती है।
    • जेनेटिक मैनिपुलेशन पर समीक्षा समिति (RCGM): यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के तहत स्थापित की गई है। यह आनुवंशिक रूप से इंजीनियर्ड सजीवों से संबंधित जारी अनुसंधान परियोजनाओं और गतिविधियों (लघु पैमाने पर फील्ड ट्रायल, आयात, निर्यात आदि सहित) की सुरक्षा की निगरानी करती है।
    • संस्थागत जैव सुरक्षा समिति (Institutional Biosafety Committee: IBSC): यह संस्थागत स्तर पर जैव सुरक्षा सुनिश्चित करती है। 
  • सलाह: 
    • रिकॉम्बिनेंट DNA सलाहकार समिति (RDAC): यह नीतियों और सुरक्षा संबंधी विनियमों की सिफारिश करती है। 
  • निगरानी: 
    • राज्य जैव प्रौद्योगिकी समन्वय समिति (State Biotechnology Coordination Committee: SBCC): यह राज्य स्तर पर विनियमों का निरीक्षण और प्रवर्तन करती है। 
    • जिला स्तरीय समिति (DLC): यह स्थानीय स्तर पर GMOs के उपयोग और सुरक्षा संबंधी अनुपालन को देखती है। 

जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (Genetic Engineering Appraisal Committee: GEAC)

  • परिचय: यह "खतरनाक सूक्ष्म जीवों/ आनुवंशिक रूप से इंजीनियर्ड जीवों या कोशिकाओं के विनिर्माण, उपयोग/ आयात/ निर्यात और भंडारण के नियम (नियम, 1989)" के अंतर्गत गठित वैधानिक समिति है। 
  • वैधानिक आधार: यह समिति पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत काम करती है। 
  • मंत्रालय: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय।
  • संरचना: 
    • अध्यक्ष: पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के विशेष सचिव/ अतिरिक्त सचिव।
    • सह-अध्यक्ष: जैव प्रौद्योगिकी विभाग का प्रतिनिधि। 
  • कार्य: 
    • शोध और औद्योगिक उत्पादन में खतरनाक सूक्ष्मजीवों और रिकॉम्बिनेंट जीवों के बड़े पैमाने पर उपयोग से संबंधित गतिविधियों का पर्यावरणीय दृष्टिकोण से मूल्यांकन करना। 
    • प्रायोगिक फील्ड ट्रायल्स सहित आनुवंशिक रूप से संशोधित सजीवों और उत्पादों को पर्यावरण संबंधी मंजूरी वाले प्रस्तावों का मूल्यांकन करना। 
    • समिति या उसके द्वारा अधिकृत किसी भी व्यक्ति को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार है। 

GM फसलों से जुड़ी चिंताएं 

  • पारिस्थितिकी संबंधी चिंताएं: GMOs प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में आनुवंशिक संदूषण का कारण बन सकते हैं और रासायनिक निर्भरता बढ़ा सकते हैं। उदाहरण के लिए, बीटी कॉर्न मिल्कवीड (एक प्रकार का खरपतवार) पर निर्भर मोनार्क तितलियों को संभावित रूप से नुकसान पहुंचाता है।
    • खरपतवारों ने शाकनाशियों के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया है। उदाहरण के लिए, ग्लाइफोसेट (एक कीटनाशक) का उपयोग बढ़ गया है और कीट प्रतिरोध (भारत में पिंक बॉलवर्म, व्हाइटफ्लाई) के कारण कीटनाशकों पर निर्भरता कम होने के बजाय बढ़ गई है।
  • जैव विविधता का नुकसान: GM फसलों के उपयोग से मिट्टी में GM प्रोटीन का रिसाव हो सकता है, जो मिट्टी में उपयोगी बैक्टीरिया, सूक्ष्मजीवों और लाभकारी परस्पर क्रियाओं को प्रभावित कर सकता है। इससे लाभकारी वनस्पतियों और जीवों के लिए अनजाने में विषाक्तता भी उत्पन्न हो सकती है।
  • आर्थिक मुद्दे: GM के उपज संबंधी दावे अक्सर विफल हो जाते हैं; उदाहरण के लिए, कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भारत में Bt कपास की उपज स्थिर रही, जबकि GM तकनीक का उपयोग बढ़ा है। 
    • बाजार पर एकाधिकार: GM फसलों पर संबंधित कंपनी का बौद्धिक संपदा अधिकार होता है, जिससे खाद्य सुरक्षा के लिए कुछ कंपनियों पर निर्भरता बढ़ जाती है। 
  • नैतिक मुद्दे: पारिस्थितिक तंत्र पर GMO के अप्रत्याशित प्रभाव नैतिक चिंताएं उत्पन्न करते हैं। 
  • एलर्जी की संभावना: ऐसी संभावना होती है कि किसी पौधे में नया जीन डालने से संवेदनशील व्यक्तियों में एलर्जी देखने को मिल सकती है। 

आगे की राह ('GM फसलें और पर्यावरण पर इनका प्रभाव' पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट)

  • विनियामकीय सुधार: GEACs की पारदर्शिता और सुरक्षा संबंधी उपायों को मजबूत करना, जिला स्तरीय समितियों में सांसदों को शामिल करना, तथा आवेदक द्वारा दिए गए डेटा पर निर्भर रहने के बजाय स्वतंत्र प्रभाव आकलन को अनिवार्य बनाना चाहिए।  
  • वैज्ञानिक मूल्यांकन: नियंत्रित दशाओं में फील्ड ट्रायल करना, उपज में वास्तविक सुधार का आकलन करना (जैसे, बीटी कपास के उपज में ठहराव) और अनुमोदन से पहले कीटनाशक के उपयोग, मिट्टी, पानी और जैव विविधता पर प्रभाव का अध्ययन करना चाहिए। 
  • GM खाद्य लेबलिंग को अनिवार्य करना: उपभोक्ता जागरूकता सुनिश्चित करने के लिए भारत में GM उत्पादों के लिए स्पष्ट लेबलिंग का तत्काल कार्यान्वयन आवश्यक है। 
  • पशु स्वास्थ्य पर प्रभाव का अध्ययन करना: पशुपालन विभाग को पशु स्वास्थ्य पर GM फसलों के प्रभाव का आकलन करने के लिए मवेशियों और मछलियों पर GM खाद्य का दीर्घकालिक परीक्षण करना चाहिए। 
  • राष्ट्रीय नीति तैयार करना: इसे GM फसलों के संबंध में देश में अनुसंधान, खेती, व्यापार और वाणिज्य के लिए तैयार किया जाना चाहिए। 

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