भारत में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पी.पी.पी.) फ्रेमवर्क {PUBLIC-PRIVATE PARTNERSHIP (PPP) FRAMEWORK IN INDIA} | Current Affairs | Vision IAS
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भारत में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पी.पी.पी.) फ्रेमवर्क {PUBLIC-PRIVATE PARTNERSHIP (PPP) FRAMEWORK IN INDIA}

Posted 04 Feb 2025

Updated 10 Feb 2025

38 min read

सुर्ख़ियों में क्यों?

विश्व बैंक ने "बेंचमार्किंग इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट" रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में विश्व की 140 अर्थव्यवस्थाओं में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) के विनियामकीय परिदृश्य का विश्लेषण किया गया है।

रिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं पर एक नज़र 

  • लोक वित्त प्रबंधन प्रणाली (Public Fiscal Management System: PFMS): केवल 19 देशों ने विशिष्ट बजटिंग, रिपोर्टिंग और लेखांकन प्रावधानों को अपनाया है।
  • पारदर्शिता में कमी: केवल 22 प्रतिशत मामलों में ही कॉन्ट्रैक्ट में किए गए किसी प्रकार के संशोधनों का ऑनलाइन प्रकाशन किया गया।
  • निगरानी एवं मूल्यांकन: केवल 37 प्रतिशत अर्थव्यवस्थाओं ने "प्रदर्शन के अनुसार भुगतान (Payments linked to performance)" प्रणाली को अपनाया है।

सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) और भारत में PPP के अलग-अलग मॉडल्स के बारे में   

PPP वास्तव में सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करने या बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सरकारों और निजी कंपनियों के बीच एक प्रकार का सहयोग है।

  • आर्थिक कार्य विभाग का निजी निवेश प्रभाग (Private Investment Unit) भारत सरकार का वह विभाग है जो PPP से संबंधित नीतियों का निर्माण करता है। इस प्रभाग की जिम्मेदारियों में PPP से संबंधित नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों के विकास के साथ-साथ मॉडल रियायत समझौतों (Model Concession Agreements) का निर्माण और PPP परियोजनाओं के लिए क्षमता निर्माण गतिविधियां शामिल हैं।

भारत में PPP के अलग-अलग मॉडल्स

  • बिल्ड ऑपरेट ट्रांसफर (BOT): यह एक ऐसा मॉडल है, जिसमें निजी संस्था को एक निश्चित अवधि के लिए किसी सुविधा का वित्त-पोषण, डिजाइन, निर्माण और संचालन करने के लिए फ्रेंचाइजी प्राप्त होती है तथा इसके बदले उसे उपयोगकर्ता शुल्क वसूलने का अधिकार प्राप्त होता है। निश्चित अवधि के बाद इसका स्वामित्व वापस सार्वजनिक क्षेत्र को हस्तांतरित कर दिया जाता है।
    • इस प्रकार की व्यवस्था में निजी क्षेत्रक की भागीदारी का स्तर अधिक होता है।
  • बिल्ड ओन ऑपरेट (BOO): यह एक ऐसा मॉडल है जिसमें एक निजी संगठन सरकार से कुछ प्रोत्साहन प्राप्त करके किसी परियोजना या संरचना का निर्माण करता है, स्वामित्व धारण करता है और संचालन करता है।
    • सरकार कर छूट जैसे वित्तीय प्रोत्साहन दे सकती है।
  • BOT-एन्युटी: इस मॉडल में सरकार निजी क्षेत्रक को उपलब्ध सेवा और प्रदर्शन मानकों को पूरा करने के आधार पर नियमित रूप से भुगतान करती है, जिससे लोक सेवा की उच्च गुणवत्ता और निरंतर वितरण को प्रोत्साहन मिलता है। इससे निजी क्षेत्रक की दक्षता का लाभ उठाने में मदद मिलती है। 
    • इस मॉडल में निजी क्षेत्रक की संस्था सड़क (या परियोजना) का निर्माण करती है, परिचालन जोखिम उठाती है, तथा रियायत अवधि (Concession period) के दौरान अथॉरिटी या सरकार से निश्चित भुगतान प्राप्त करती है।
  • ऑपरेशन एंड मेंटेनेंस (सर्विस कॉन्ट्रैक्ट): सरकार विशिष्ट सेवाओं या परिसंपत्तियों के रखरखाव के लिए किसी निजी संस्था को कॉन्ट्रैक्ट देती है। इस मॉडल में अनुबंध/ कॉन्ट्रैक्ट की अवधि आमतौर पर रियायत अनुबंधों (Concession contracts) की तुलना में कम होती है।
  • इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट एंड कंस्ट्रक्शन (EPC): इसमें निजी संस्था किसी परियोजना के पूरे जीवनचक्र के लिए, इंजीनियरिंग और डिज़ाइन से लेकर सामग्री की खरीद और निर्माण तक की जिम्मेदारी निभाती है। हालांकि, परियोजना प्रबंधन में इसकी कोई भूमिका नहीं होती, और इसका पूर्व वित्त-पोषण सरकार द्वारा किया जाता है।
  • हाइब्रिड एन्युटी मॉडल (HAM): इसमें EPC (40%) और BOT-एन्युटी (60%) को शामिल किया जाता है। सरकार परियोजना लागत का 40% वित्त-पोषित करती है, जबकि निजी डेवलपर शेष 60% राशि की व्यवस्था करता है। अक्सर निजी डेवलपर कुल लागत का केवल 20-25% ही निवेश करता है, शेष राशि ऋण के माध्यम से वित्त-पोषित होती है।

 

भारत में सार्वजनिक निजी भागीदारी (PPP) मॉडल की आवश्यकता क्यों है?

  • पर्याप्त अवसंरचना नहीं: भारत में परिवहन, ऊर्जा और शहरी विकास में बड़ी संख्या में अवसंरचनाओं के विकास की आवश्यकता है।
    • उदाहरण के लिए- PPP मॉडल के तहत विकसित मुंबई कोस्टल रोड प्रोजेक्ट का उद्देश्य निजी निवेश को आकर्षित करते हुए यातायात की भीड़ को कम करना और तटीय क्षेत्रों तक आवागमन को बढ़ाना है।
  • संसाधन जुटाने के लिए: सरकार के पास अक्सर बड़ी परियोजनाओं के लिए पर्याप्त धन नहीं होता है। ऐसे में PPP परियोजनाएं सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों से वित्त-पोषण जुटाने में सहायता करती हैं।
    • भारतीय रिजर्व बैंक की 2023 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कई राज्यों का  राजकोषीय घाटा 3% से अधिक है। इस वजह से उनके पास अवसंरचनाओं के विकास के लिए फंड कम पड़ जाता है।
  • दक्षता और इनोवेशन: निजी क्षेत्रक की भागीदारी दक्षता और इनोवेशन को बढ़ाती है।
    • उदाहरण के लिए- दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे में ऑटोमेटेड चेक-इन और बेहतर बैगेज हैंडलिंग जैसी सुविधाओं के लिए अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग किया गया है।
  • जोखिम साझा करना: PPP मॉडल में नुकसान का वहन सार्वजनिक और निजी संस्था, दोनों साझा करते हैं। इससे परियोजना को जारी रखने में मदद मिलती है क्योंकि किसी एक पर बोझ नहीं पड़ता है।
  • सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना: अवसंरचना विकास के क्षेत्र में सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के लिए PPP मॉडल महत्वपूर्ण है।
    • SDGs प्रत्यक्ष तौर पर सामाजिक और आर्थिक अवसंरचना क्षेत्रों से जुड़े हैं।
  • सेवा वितरण पर ध्यान केंद्रित करना: निजी क्षेत्रक के साथ सहयोग करने से सरकार विनियमन और निगरानी पर ध्यान केंद्रित कर सकती है, जिससे सेवा वितरण को और अधिक बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।
    • उदाहरण के लिए- भोपाल में रानी कमलापति स्टेशन के पुनर्विकास में PPP मॉडल की मदद ली गई है।

भारत में PPP के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियां मौजूद हैं?

  • विनियामकीय मुद्दे: केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के अनुसार, भूमि अधिग्रहण संबंधी मुद्दों, पर्यावरण मंजूरी में देरी, आदि के कारण 449 बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की लागत में कुल 5.01 लाख करोड़ रुपये से अधिक की वृद्धि हुई है (मार्च, 2024 में)।
  • वित्त-पोषण की समस्या: अवसंरचना के विकास में अधिक पूंजी की आवश्यकता पड़ती है  और इसमें जोखिम भी अधिक होता है। इसलिए ऐसी परियोजनाओं के लिए फंड जुटाने में समस्या आती है।
    • उदाहरण के लिए- राष्ट्रीय अवसंरचना योजना के लिए अगले पांच वर्षों में 111 लाख करोड़ रुपये के निवेश की आवश्यकता है।
  • दीर्घकालिक कॉन्ट्रैक्ट संबंधी मुद्दे: 20-30 वर्षों तक चलने वाली परियोजनाओं से "अप्रासंगिक सौदेबाजी (Obsolescing bargains)" की स्थिति उत्पन्न होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि नीतिगत या आर्थिक परिवर्तनों के कारण निजी क्षेत्रक ऐसी परियोजनाएं या कारोबार में अपनी सौदेबाजी की क्षमता को खो देता है।
  • विवाद समाधान तंत्र: विवाद समाधान के लिए प्रभावी तंत्र नहीं होने की वजह से परियोजना की  गुणवत्ता एवं हितधारकों की प्रतिबद्धता कम होती है। इससे परियोजनाओं की लागत में वृद्धि होती है और यह समय पर पूर्ण भी नहीं होती है।
  • राज्य के स्वामित्व वाली संस्थाओं की भागीदारी: सार्वजनिक क्षेत्रक के उपक्रमों को अक्सर सरकारी संस्थाओं के रूप में देखा जाता है। इससे PPP में इन संस्थाओं की भागीदारी कम दिखती है।

भारत में PPP में सुधार के लिए आगे की राह (विजय केलकर समिति के अनुसार)

  • सेवा वितरण पर फोकस करना: कॉन्ट्रैक्ट में केवल वित्तीय लाभ अर्जित करने की बजाय सेवा वितरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • जोखिम प्रबंधन: अत्याधुनिक मॉडलिंग अपनाकर जोखिम प्रबंधन दक्षता और परियोजना के लाभकारी होने का आकलन किया जाना चाहिए।
  • विशेषज्ञ तंत्र: जटिल समस्याओं को सुलझाने और अनुमोदन की प्रतीक्षा कर रही परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिए PPP परियोजना समीक्षा समिति और ट्रिब्यूनल की स्थापना की जानी चाहिए।
  • कानून में संशोधन: निर्णय लेने में हुई वास्तविक त्रुटियों और भ्रष्टाचार के कृत्यों के बीच अंतर करने के लिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में संशोधन की आवश्यकता है।
    • एक PPP संस्थान की स्थापना की जानी चाहिए और परियोजनाओं को समय पर मंजूरी देने के लिए राष्ट्रीय सुविधा समिति (National Facilitation Committee) का गठन किया जाना चाहिए।
  • स्वतंत्र विनियमन: अलग-अलग क्षेत्रकों के लिए एक स्वतंत्र विनियामक तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। साथ ही, सड़कों और बंदरगाहों से संबंधित परियोजनाओं के विकास को बढ़ावा देने की भी जरूरत है।
  • Tags :
  • PPP
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  • इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट एंड कंस्ट्रक्शन
  • ऑपरेशन एंड मेंटेनेंस (सर्विस कॉन्ट्रैक्ट)
  • विजय केलकर समिति
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