सुर्ख़ियों में क्यों?
उच्चतम न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या अब तक के उच्चतम स्तर 88,417 पर पहुँच गई है।
अन्य संबंधित तथ्य
जिला न्यायालयों में लगभग 4.6 करोड़ और उच्च न्यायालयों में लगभग 63 लाख मामले लंबित हैं (राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड)।
मामलों के लंबित होने के कारण
- अपर्याप्त न्यायाधीश/जनसंख्या अनुपात: भारत में प्रति दस लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश हैं, जबकि 120वीं विधि आयोग ने प्रति दस लाख लोगों पर 50 न्यायाधीशों का अनुपात अनुशंसित किया था।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) की अप्रभावशीलता: न्याय की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए ADR को प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया गया है।
- ग्राम न्यायालय को ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे दावों को निपटाने और मुख्य न्यायपालिका के कार्य भार को कम करने के लिए प्रस्तावित किया गया था। हालांकि, अधिकांश राज्यों में ग्राम न्यायालय प्रभावी रूप से स्थापित नहीं किए गए हैं।
- प्रणालीगत और प्रक्रियात्मक अक्षमताएँ: भारत में न्यायिक विलंब कई कारणों जैसे कि बार-बार अपील किया जाना, बार-बार स्थगन, झूठी मुकदमेबाजी, अस्पष्ट कानून, कमजोर अनुपालन तथा खराब केस प्रबंधन आदि से होता है।
- प्रायः समान प्रकृति के मामलों का व्यवस्थित समूहीकरण या तात्कालिकता के आधार पर वर्गीकरण नहीं किया जाता है, जिससे दक्षता में कमी आती है।
- न्यायिक अवसंरचना और तकनीकी कमियां: भारत की न्यायपालिका को सहायक कर्मचारियों की कमी, निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव, सीमित तकनीकी उपकरण और डिजिटल तकनीक को धीमी गति से अपनाने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
- वित्तीय बाधाएं: भारत रक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 2% जबकि न्यायपालिका पर केवल 0.1% व्यय करता है।
- सरकार एक प्रमुख वादी के रूप में: कुल मुकदमों में लगभग 50% मुकदमों के लिए सरकारी एजेंसियां जिम्मेदार हैं।
न्यायालय लंबितता का प्रभाव
- मूल अधिकारों का उल्लंघन: हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि त्वरित न्याय पाने का अधिकार अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का अभिन्न अंग है।
- सामाजिक निहितार्थ
- कानून के शासन का कमजोर होना: आपराधिक मुकदमों में देरी अपराधियों को प्रोत्साहित करती है और न्याय के निवारक प्रभाव को कम करती है।
- गरीबों पर असमान प्रभाव: भारत में लगभग 76% विचाराधीन कैदी बिना दोषसिद्धि के जेल में बंद हैं।
- आर्थिक निहितार्थ
- मुकदमेबाजी की बढ़ी हुई लागत: पक्षकारों को बार-बार होने वाली सुनवाई, स्थगन और वकीलों की फीस पर भारी खर्च करना पड़ता है।
- रुकी हुई परियोजनाएं: भूमि अधिग्रहण और पर्यावरणीय स्वीकृति के मामले अवसंरचना के विकास में बाधा डालते हैं।
- विश्वास में कमी: नागरिकों का न्यायपालिका पर विश्वास कम होता जा रहा है जिससे वे कभी-कभी विवाद समाधान के लिए गैर-कानूनी उपायों का सहारा लेते हैं।
- न्याय देने में देरी इतनी व्यवस्थित हो गई है कि इसे एक "नए बचाव" के रूप में देखा जा सकता है, जहां किसी मामले को लम्बा खींचना एक पक्ष के लिए रणनीतिक लाभ का साधन बन गया है।
मुकदमों के लंबित मामलों को कम करने के लिए सरकार की योजनाएं/पहलें
- न्याय वितरण और विधिक सुधार हेतु राष्ट्रीय मिशन (NMJDLR- 2011): लंबित मामलों और विलंब को कम करना, न्यायिक अवसंरचना को सुदृढ़ करना और प्रक्रियात्मक सुधार लागू करना।
- न्यायपालिका के लिए अवसंरचना के विकास हेतु केंद्र प्रायोजित योजना (CSS): न्यायालय भवन, न्यायाधीशों के लिए आवासीय इकाइयां, वकील सभागार, शौचालय और न्यायालयों में डिजिटल सुविधा का विकास करना।
- ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना (चरण I, II, III): न्यायालयों का कम्प्यूटरीकरण, ई-फाइलिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, वर्चुअल कोर्ट, वर्चुअल जस्टिस क्लॉक, न्यायाधीशों के लिए JustIS ऐप का उपयोग करना।
- वाणिज्यिक न्यायालय (वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के अंतर्गत): वाणिज्यिक विवादों का त्वरित निपटान, आर्थिक क्षेत्राधिकार में कमी, इलेक्ट्रॉनिक केस प्रबंधन प्रणाली लागू करना।
- फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTC): लंबे समय से लंबित और जघन्य आपराधिक मामलों का शीघ्र निपटान करने हेतु स्थापित किए गए थे। उदाहरण एन.आई.ए. कोर्ट, पॉक्सो कोर्ट आदि।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र: नियमित न्यायालयों के बाहर विवादों का निपटारा, लोक अदालतों, मध्यस्थता, पंचनिर्णय आदि के माध्यम से बोझ को कम करना।
आगे की राह
- एक केंद्रीय प्राधिकरण की स्थापना: भारतीय न्यायालयों हेतु कार्यात्मक अवसंरचना की योजना बनाने, निर्माण, प्रबंधन और रखरखाव के लिए राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIA) की स्थापना आवश्यक है। NJIA की स्थापना का प्रस्ताव पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमन्ना द्वारा 2021 में किया गया था।
- मामलों के प्रबंधन में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की क्षमता का भी पता लगाया जाना चाहिए।
- तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति: संविधान के अनुच्छेद 128 और 224A के अंतर्गत प्रावधानों को लागू करते हुए उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अनुभवी सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए।
- लक्ष्य और समय-सीमा निर्धारित करना: उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों को लंबित मामलों के निपटारे हेतु वार्षिक लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए द्विमासिक या त्रैमासिक निष्पादन समीक्षा करनी चाहिए।
- स्थगन को नियंत्रित करना: कमजोर या तकनीकी आधार पर स्थगन देने की प्रथा को सख्ती से नियंत्रित किया जाना चाहिए क्योंकि इससे महत्वपूर्ण न्यायिक समय की बर्बादी होती है।
- मुकदमेबाजी प्रथाओं में सुधार: सरकारी मुकदमेबाजी को कम और स्पष्ट कानूनों का मसौदा तैयार किया जाना चाहिए। साथ ही, समय पर अनुपालन सुनिश्चित करने के साथ-साथ निरर्थक मामलों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
- ADR तंत्र को प्राथमिकता देना: अनावश्यक मुकदमेबाजी को कम करने के लिए ADR का विस्तार और स्थानीय स्तर पर विवाद निपटान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
- विधिक सेवा प्राधिकरणों को नए मामलों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए बड़े पैमाने पर पूर्व-विवाद मध्यस्थता का उपयोग करना चाहिए।