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भारत में राजनीति की लागत (Cost of Politics in India) | Current Affairs | Vision IAS
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भारत में राजनीति की लागत (Cost of Politics in India)

Posted 19 Aug 2025

Updated 26 Aug 2025

1 min read

सुर्ख़ियों में क्यों?

हाल ही में, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) ने वेस्टमिंस्टर फाउंडेशन फॉर डेमोक्रेसी (WFD) के साथ मिलकर भारत में "राजनीति की लागत" पर एक महत्वपूर्ण केस स्टडी प्रस्तुत किया है। इस केस स्टडी का मुख्य केंद्र बिंदु राजनीतिक पदों के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों द्वारा किया जाने वाला भारी-भरकम खर्च है।

अध्ययन के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर

  • चुनाव अभियान खर्च में बहुत अधिक वृद्धि: लोक सभा चुनाव में बड़े दलों के प्रत्याशी औसतन 5 से 10 करोड़ रुपये तक व्यय करते हैं। प्रतिस्पर्धी अथवा संपन्न राज्यों (जैसे- तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि) में यह आंकड़ा और भी बढ़ जाता है।
  • नियमित राजनीतिक गतिविधियों का बढ़ता खर्च: इसमें सामुदायिक आयोजनों में उपस्थिति, अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की सहायता करना और दल की गतिविधियों को निरंतर चलाना जैसे नियमित खर्चे शामिल हैं, जो लगातार बढ़ रहे हैं।
  • सोशल मीडिया पर व्यय: तकनीकी विशेषज्ञों को काम पर रखना, इन्फ्लुएंसर्स को भुगतान करना और ऑनलाइन विज्ञापनों पर खर्च करना आवश्यक हो गया है। हालांकि, यह पारंपरिक तरीकों जैसे रैलियों, परिवहन और कार्यकर्ताओं पर होने वाले खर्च से अब भी कम है।
  • मतदाताओं को प्रलोभन देने की बढ़ती प्रवृत्ति: चुनावों के ठीक पहले नकद या अन्य वस्तुओं के वितरण का चलन तेजी से बढ़ा है। इस प्रतिस्पर्धा में, अनिच्छुक उम्मीदवारों पर भी ऐसा करने का दबाव बनता है।
  • राजनीतिक खर्च को बढ़ाने वाले प्रमुख कारक: चुनाव से पहले जनता तक पहुंच बनाना; अभियान के लिए लॉजिस्टिक्स प्रबंधन; मीडिया में प्रचार और समर्थकों के नेटवर्क को बनाए रखने के लिए चुनावी संरक्षण (Patronage) जैसे कारक इस लागत को बढ़ाते हैं।
  • वित्तीय संसाधनों के स्रोत:
    • मुख्य स्रोत: उम्मीदवारों की अपनी संपत्ति तथा परिवार, मित्रों और समर्थकों द्वारा दिया गया योगदान।
    • अन्य स्रोत: व्यावसायिक समूहों से उधार, क्राउडफंडिंग, और अपनी संपत्ति बेचकर या ऋण लेकर धन जुटाना।
    • अधिकांश राजनीतिक दल (कुछ बड़े दलों को छोड़कर) यह अपेक्षा करते हैं कि उम्मीदवार अपने चुनाव का खर्च स्वयं उठाएं।
      • यह व्यवस्था धनी और वंशवादी उम्मीदवारों को लाभ पहुंचाती है तथा हाशिए पर मौजूद समूहों के लिए राजनीति में प्रवेश को कठिन बनाती है।

महंगे चुनावों के दुष्परिणाम

  • शासन व्यवस्था पर प्रभाव
    • बढ़ता व्यापार-राजनीति गठजोड़: जब चुनावों में कॉर्पोरेट जगत का धन लगता है, तो नीतियां आम जनता की बजाय वित्त-पोषकों के हितों (जैसे करों में छूट, नियमों में ढील आदि) की ओर झुक सकती हैं, जिससे सामाजिक असमानता और बढ़ती है।
      • खनन, कोयला और रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रकों के अमीर कारोबारी अब सीधे राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं तथा धन के बल पर पार्टी का टिकट या निर्दलीय जीत हासिल कर रहे हैं।
    • कर्तव्यों से ध्यान भटकना: निर्वाचित प्रतिनिधि अपने विधायी कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय भविष्य के चुनावों के लिए धन जुटाने और पिछले चुनावी खर्च की भरपाई करने में लगे रहते हैं।
    • भ्रष्टाचार का जोखिम: चुनावी अभियानों में काले धन का बढ़ता उपयोग चुनावी भ्रष्टाचार की नींव रखता है।
      • उल्लेखनीय है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2024 करप्शन पर्सेप्शन्स इंडेक्स में भारत 96वें स्थान पर था।
  • लोकतांत्रिक अखंडता पर प्रभाव
    • जनता के विश्वास में कमी: चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता न होने से पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर से मतदाताओं का विश्वास कमजोर होता है और वे इससे विमुख हो सकते हैं।
    • सत्ता का केंद्रीकरण: बड़े दल भारी फंडिंग के दम पर बड़े पैमाने पर वोट खरीदने और व्यापक मीडिया अभियान चलाने में सक्षम होते हैं।
      • इससे छोटे और क्षेत्रीय दलों को प्रतिस्पर्धा का समान अवसर नहीं मिल पाता, जिससे मतदाताओं के पास विकल्पों की कमी हो जाती है।
    • वंचित वर्गों के लिए बाधा: चुनावी खर्च इतना अधिक हो गया है कि यह महिलाओं, युवाओं और सामान्य पृष्ठभूमि के योग्य उम्मीदवारों के लिए एक बड़ी बाधा बन गया है।

आगे की राह

  • व्यय सीमाओं का कठोरता से अनुपालन: भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) को उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई करने के लिए अधिक संसाधन, शक्ति और न्यायिक समर्थन दिया जाना चाहिए।
    • उदाहरण के लिए- यूनाइटेड किंगडम में सभी स्तरों के चुनावों में खर्च की सीमाएं और ऑडिट बहुत सख्ती से लागू किए जाते हैं।
  • राजनीतिक दलों को संवैधानिक दायरे में लाना: दलों को एक औपचारिक विनियामक और संस्थागत जांच के अधीन लाया जाना चाहिए।
  • चुनावों का राजकीय वित्त-पोषण: कॉर्पोरेट प्रभाव को सीमित करने और छोटे दलों को समान अवसर देने के लिए, प्राप्त मतों के अनुपात में पार्टियों को सरकारी फंडिंग दी जा सकती है (जैसा कनाडा और जर्मनी में होता है)। इस विचार का समर्थन कई समितियों ने किया है:
    • चुनावों के राजकीय वित्त-पोषण पर इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998);
    • चुनावी कानूनों में सुधार पर विधि आयोग की रिपोर्ट (1999);
    • संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (2001);
    • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2008) आदि। 
  • मतदाताओं के बीच जागरूकता का प्रसार: चुनावों में धन-बल के दुरुपयोग को रोकने के लिए नागरिक समाज, मीडिया और ECI को मिलकर मतदाता जागरूकता अभियान चलाने चाहिए।
  • दान की जानकारी तत्काल सार्वजनिक करना: पारदर्शिता को अधिकतम करने के लिए दान मिलते ही उसकी जानकारी सार्वजनिक करने का प्रावधान (अमेरिकी मॉडल की तरह) लागू किया जा सकता है।

निष्कर्ष

संक्षेप में, भारत की चुनावी वित्त-पोषण प्रणाली अत्यधिक खर्च, कुछ हाथों में संसाधनों के संचय और काले धन के व्यापक इस्तेमाल जैसी गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है। यह स्थिति देश के लोकतंत्र, शासन प्रणाली और सामाजिक समानता के लिए एक बड़ा संकट है। अतः लोकतंत्र की सुरक्षा हेतु कॉर्पोरेट चंदे पर कड़े नियम बनाने जैसे तत्काल और व्यापक सुधारों की अविलंब आवश्यकता है।

  • Tags :
  • Electoral Funding
  • Cost of Politics
  • State funding of elections
  • Politics-Corporate Nexus
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