सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि मीडिया में वायलेंट कंटेंट (हिंसा फैलाने वाले कंटेंट) का समाज पर प्रभाव गहरा हो सकता है, परंतु इससे निपटने के लिए उठाए गए किसी भी कदम को 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' जैसे मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
सिनेमा के बारे में
- सिनेमा जन-संचार का एक लोकप्रिय माध्यम है, जिसे "सातवीं कला (सेवंथ आर्ट)" के रूप में भी जाना जाता है। यह कला का सबसे नया रूप है, जो प्राचीन कलाओं के अलग-अलग रूपों को एक सूत्र में पिरोता भी है।
- कला के अन्य 6 रूप हैं- चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला, साहित्य, रंगमंच और संगीत।
- सिनेमा का उदय 19वीं सदी के अंत में हुआ था। कला का यह नया रूप नाटक (नाट्य) को प्रदर्शित करने और भावनाओं को जगाने वाले सबसे प्रभावशाली माध्यमों में से एक बन गया है।
- विविध कलात्मक और सांस्कृतिक तत्वों के मिश्रण से, भारतीय सिनेमा ने एक अनूठे संप्रेषण माध्यम को गढ़ा है जो व्यक्तिगत और सामाजिक, दोनों तरह की धारणाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
भारतीय सिनेमा का विकास (1950 के दशक से 2025 तक)
भारतीय सिनेमा राष्ट्रवाद की लहर से उत्पन्न हुआ है। यह पारंपरिक मानदंडों और सामाजिक यथार्थवाद को दर्शाती है, तथा लैंगिक समानता, जातिगत भेदभाव और LGBTQ+ के अधिकार जैसे समकालीन मुद्दों को भी उठाता रहा है।
विकास अवधि | विषय-वस्तु |
1950-60 का दशक: सामाजिक यथार्थवाद और राष्ट्रवाद
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1970 का दशक: एंग्री यंग मैन और सामाजिक अशांति (आपातकाल) |
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1990 का दशक: व्यावसायिक सिनेमा और सांस्कृतिक बदलाव |
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2000 के दशक की शुरुआत: यथार्थवाद और सामाजिक आलोचना |
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2020 के बाद: OTT सिनेमा और क्षेत्रीय सिनेमा |
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फिल्में समाज को किस प्रकार दिशा दिखाती हैं?
भारतीय समाज पर सिनेमा का सकारात्मक प्रभाव
● भारतीय संस्कृति की वैश्विक पहचान दिलाने में: भारतीय सिनेमा की अंतर्राष्ट्रीय सफलता, जैसे द एलीफैंट व्हिस्परर्स और RRR का ऑस्कर (बेस्ट ओरिजिनल सॉन्ग) जीतना, राष्ट्रीय गौरव बढ़ाती है और वैश्विक मंच पर भारतीय संस्कृति और क्रिएटिविटी को प्रदर्शित करती है।
- सांस्कृतिक विविधता का प्रतिबिंब: डेढ़ इश्किया जैसी फ़िल्में लखनऊ की नवाबी संस्कृति को दर्शाती हैं, पीकू बंगाली संस्कृति को दर्शाती है, खूबसूरत राजस्थान के आकर्षक किले को दर्शाती है, अदि।
- विकसित होते पारिवारिक मूल्यों का प्रतिबिंब: भारतीय सिनेमा ने पहले की फिल्मों में पारिवारिक संघर्षों को सामाजिक मानदंडों और पश्चिमी प्रभाव के संदर्भ में दिखाया, जैसा कि खानदान (1965) में देखा गया। समय के साथ, फिल्मों में अवैध संबंध (मासूम, कल हो ना हो) जैसे मुद्दों को दिखाया जाने लगा। 2000 के दशक के बाद एकल परिवारों की समकालीन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया गया। इनके कुछ उदाहरण हैं:
- कभी अलविदा ना कहना ने विवाहेत्तर संबंधों और तलाक जैसे वर्जित विषयों को गंभीरता से प्रस्तुत किया।
- गुडबाय फिल्म में मां के निधन के बाद बच्चों और उनके पिता के बीच के भावनात्मक सफर को दिखाया गया, जिसमें पीढ़ियों के बीच के अंतर और परिवारों के भीतर भावनात्मक अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत महत्व पर बढ़ते जोर को रेखांकित किया गया है।
- महिला सशक्तिकरण: बंगाली फिल्म दुर्गा सहाय में महिला नायिका सामाजिक सीमाओं और पूर्वाग्रहों के खिलाफ जाती है और अंततः देवी दुर्गा का प्रतीक बन जाती है।
- शिक्षा के प्रति जागरूकता: निल बटे सन्नाटा में एक हाउसमेड मां की वापस स्कूल जाने की यात्रा को दर्शाया गया है, जो अपनी बेटी को पढ़ाई के लिए प्रेरित करने के लिए ऐसा करती है। यह फिल्म शिक्षा के परिवर्तनकारी प्रभाव को उजागर करती है।
- सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम
- जागरूकता बढ़ाना: पा और तारे ज़मीन पर जैसी फिल्मों ने दर्शकों को प्रोजेरिया और डिस्लेक्सिया जैसे विकारों के बारे में शिक्षित किया।
- सामाजिक सोच में बदलाव लाना: फायर और अलीगढ़ जैसी फिल्मों ने LGBTQ+ समुदायों के अधिकारों के बारे में महत्वपूर्ण चर्चाओं को जन्म दिया। अलीगढ़, बाला जैसी फिल्मों ने समाज में व्याप्त मानसिकताओं को चुनौती दी।
- राष्ट्रवादी सोच का निर्माण: तमिल सिनेमा (मुथु, अन्नामलाई) के राजनीतिक प्रभाव से लेकर हिंदी सिनेमा की देशभक्ति आधारित फ़िल्में (स्वदेश) राष्ट्रीय घटनाओं पर जनमत को प्रभावित करती हैं।
भारतीय समाज पर सिनेमा का नकारात्मक प्रभाव
● लैंगिक रूढ़िवादिता और प्रभुत्व वाली पुरुषवादी सोच: महिलाओं को अभी भी अक्सर ऑब्जेक्ट (जैसे आइटम सॉन्ग) के रूप में दिखाया जाता है, और 'हम तुम्हारे हैं सनम', 'पुष्पा' जैसी फिल्मों में घरेलू हिंसा को सामान्य जीवन का हिस्सा बना दिया गया है।
- इसके अतिरिक्त, कबीर सिंह और एनिमल जैसी फिल्में आक्रामकता और पुरुष के अनुचित व्यवहार का महिमामंडन करती हैं।
● अवास्तविक शारीरिक मानकों को बढ़ावा देना: सिनेमा अक्सर इस विचार को बढ़ावा देता है कि गोरी त्वचा श्रेष्ठ होती है, इसलिए अक्सर गोरी चमड़ी वाले अभिनेताओं को मुख्य भूमिकाओं में लिया जाता है।
- यह बॉडी शेमिंग को भी बढ़ावा देता है, जहां बहुत पतले और अधिक वजन वाले व्यक्तियों का उपहास किया जाता है।
● पारंपरिक परिवार संस्था पर प्रश्नचिह्न: सिनेमा में प्रेम विवाह और लिव-इन रिलेशन जैसे विषयों को स्वीकार करते हुए पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों को चुनौती दी जा रही है, जैसा कि 'ओके जानू' जैसी फिल्मों में दर्शाया गया है।
● सांस्कृतिक प्राथमिकताओं में बदलाव: पश्चिमी नृत्य शैलियों (जैसे हिप-हॉप और जैज़) और संगीत (जैसे रैप) पर सिनेमा के बढ़ते फोकस ने युवाओं की पसंद को प्रभावित किया है। ये संस्कृतियां कभी-कभी भरतनाट्यम और कथक जैसी पारंपरिक भारतीय कलाओं पर हावी हो जाती हैं।
● कमजोर समुदायों की संवेदनाहीन प्रस्तुति: भारतीय सिनेमा अक्सर LGBTQ+ व्यक्ति, दिव्यांगजन जैसे कमजोर समुदायों को बड़ी असंवेदनशीलता के साथ दर्शाता है, और उन्हें स्टीरियोटाइप या हास्य का माध्यम बना देता है।
- दोस्ताना जैसी फिल्में समलैंगिकता का मजाक उड़ाती हैं, जबकि गोलमाल फिल्म मूक और दृष्टिहीनता का मज़ाक उड़ाती है।
● मादक पदार्थों के उपयोग का महिमामंडन: देव डी जैसी फिल्में अक्सर मद्यपान और धूम्रपान को ट्रेंडी या तनाव से निपटने के तरीके के रूप में चित्रित करती हैं, जिससे किशोरों में इसे एक "आम" जीवन-शैली के हिस्से के रूप में देखने की प्रवृत्ति पैदा होती है।
- समाज में विभाजन को बढ़ावा देना : दुष्प्रचार वाली फिल्में तेजी से किसी ख़ास राजनीतिक विचारधाराओं को बढ़ावा दे रही हैं, भावनाओं को भड़काने और दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए पुराने मुद्दों को हवा दे रही हैं, जिससे सामाजिक विभाजन और गहरा हो रहा है।
सिनेमा में कंटेंट की निगरानी पर नियम और कानून
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निष्कर्ष
सिनेमा समाज का एक शक्तिशाली दर्पण है जो हमारे मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है, साथ ही यह हमारी पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती भी देता है और हमारे सोचने और महसूस करने के तरीके को भी दिशा देता है। सिनेमा को सामाजिक परिवर्तन की दिशा में एक प्रेरक माध्यम के रूप में विकसित होना चाहिए, जो समावेशिता, विविधता और संवेदनशीलता को बढ़ावा दे, साथ ही जनभावनाओं का सम्मान करते हुए संवैधानिक और सामाजिक नैतिकता का पालन करे।